संपत्ति अन्तरण अधिनियम, १८८२(क्रमांक सं● ४)

संपत्ति अन्तरण अधिनियम, १८८२(क्रमांक सं● ४)

[१७ फरवरी, १८८२]
पक्षकारों के कार्य द्वारा किए गए संपत्ति-अन्तरण से सम्बंधित विधि के कतिपय भागों को परिभाषित और संशोधित करना समीचीन है; अतः एतदद्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित किया जाता है-
अध्याय १
प्रारंभिक
१.संक्षिप्त नाम- यह अधिनियम सम्पत्ति-अन्तरण अधिनियम,१८८२ ।                  कहा जा सकेगा।
प्रारम्भ-  यह जुलाई, १८८२ के प्रथम दिन को प्रवृत्त होगा
विस्तार- प्रथमतः इसका विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है सिवाय उन राज्यक्षेत्रों के जो १ नवम्बर, १९५६ से अव्यवहित पूर्व भाग ख राज्यों में या मुम्बई, पंजाब और दिल्ली के राज्यों में समाविष्ट थे।
किन्तु इस अधिनियम या इसके किसी भाग का विस्तार उक्त सम्पूर्ण राज्यक्षेत्रों या उन के किसी भाग पर संपृक्त राज्य सरकार शासकीय राजपत्र में अधुसूचना द्वारा कर सकेगी।
और कोई भी राज्य सरकार अपने द्वारा प्रशासित राज्यक्षेत्रों के किसी भी भाग को निम्नलिखित सब उपबन्धों से या उनमे से किसी से भी चाहे भूतलक्षी या चाहे  रूप से छूट शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा समय-समय पर दे सकेगी , अर्थात-
 
 धारा ५४, पैरा २ और ३, धाराएंं ५९, १०७ और १२३।

इस धारा के पूर्ववर्ती भाग में किसी बात के होते हुए भी धारा ५४, पैरा २ और ३  और धाराएं ५९, १०७ और १२३ का विस्तार किसी ऐसे जिले या भू-भाग पर न तो होगा ना किया जाएगा, जो भारतीय रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, १९०८(१९०८ का १६) के प्रवर्तन से उन अधिनियम की प्रथम धारा द्वारा प्रदत्त शक्ति के अधीन या अन्यथा तत्समय अपवर्जित हो।



२. अधिनियमों का निरसन- किन्ही अधिनियामितियों, प्रसंगतियों, अधिकारों, दायित्वों इत्यादि की व्यावृत्ति
उन राजयजक्षेत्रों में , जिन पर इस अधिनियम का तत्समय विस्तार हो, वे अधिनियामितियाँ, जो एतद उपबद्ध अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं उनमें वर्णित विस्तार तक निरसित हो जाएंगी। किन्तु एतस्मिन अंतर्विष्ट कोई भी बात निम्नलिखित पर प्रभाव डालने वाली ना समझी जाएगी-
(क) एतदद्वारा अभिव्यक्त रूप से ना निरसित किसी भी अधिनियमित के उपबंध;
(ख)  किसी संविदा के या संपत्ति संघटन के, कोई भी निबंधन और प्ररसंगतियां जो इस अधिनियम के उपबन्द्धॊं से संगत और समय प्रवृत्त विधि द्वारा अनुज्ञात है;
(ग) इस अधिनियम के प्रवृत्त होने से अरे पूर्वव गठित किसी विधिक संबंध से उत्पन्न कोई अधिकार या दायित्वया या किसी ऐसे अधिकार या दायित्व के बारे में कोई अनुतोष;अथवा 
(घ)इस अधिनियम की धारा और अध्याय द्वारा यथा उपबंध के सिवाय विधि की क्रिया द्वारा या सक्षम अधिकारिता युक्तत न्यायालय की डिक्री या आदेश के द्वारा या उसके निष्पादन मैं हुआ कोई अंतरण,
 और इस अधिनियम के दूसरेेेे अध्याय कि कोई भी बात मोहम्मडन विधि के किसी नियम पर प्रभाव डालने वाली नहीं समझी जाएगी।३.  ३. निर्वचन खंड - इस अधिनियम में जब तक कि विषय या संदर्भ में कोई बात विरुद्ध ना हो-
"स्थावर संपत्ति" के अंतर्गत खड़ा काष्ठ, उगती फसलेंं या घास नहीं आती:
 "लिखत" से अवसीयती लिखत अभिप्रेत हैं : 
किसी लिखत के संबंध में "अनुप्रमाणित" से ऐसे दो या अधिक साक्षियों द्वारा अनुप्रमाणित अभिप्रेत है और सर्वदा अभिप्रेत रहा होना समझा जाएगा जिनमें से हर एक ने निष्पादक को लिखत पर हस्ताक्षर करते या अपना चिन्ह लगाते देखा है या निष्पादक की उपस्थिति में और उसके निदेश द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को लिखित पर हस्ताक्षर करते देखा है या निष्पादक से उसके अपने हस्ताक्षर या चिन्ह की या ऐसे अन्य व्यक्ति के हस्ताक्षर की व्यक्तिक अभिस्वीकृति पाई है और जिनमें से हर एक ने निष्पादन की उपस्थिति में लिखा पर हस्ताक्षर किए हैं किंतु यहां आवश्यक ना होगा कि ऐसे साक्षियों  में से एक से अधिक एक ही समय उपस्थित रहे हो और अनुप्रमाणन का कोई विशिष्ट प्रारूप आवश्यक ना होगा:
"रजिस्ट्रीकृत" से ऐसे किन्ही राज्य क्षेत्रों के जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है किसी विभाग में दस्तावेजों के रजिस्ट्रीकरण को विनियमित करने वाले ततसमयप्रवृत्त विधि के अधीन रजिस्ट्रीकृत अभिप्रेत है:
"भूबद्ध" से अभिप्रेत है-
(क) भूमि में मूलित, जैसे पेड़ और झाड़ियां 
(ख) भूमि में निविष्ट, जैसे भित्तियांं या निर्माण; अथवा 
(ग) ऐसी निविष्ट वस्तु से इसलिए बद्ध कि जिससे यहां बद्ध है उसका स्थायी फायदाप्रद उपयोग किया जा सके:
 "अनुयोज्य दावे" के स्थावर संपत्ति के बंधक द्वारा या जंगम संपत्ति के आडमान या गिरवी द्वारा प्रतिभूत ऋण से भिन्न किसी ऋण का या उस जंगम सम्पत्ति में, जो दावेदार के वास्तविक या आन्वयिक कब्जे में नहीं है फायदप्रद हित का ऐसा दावा अभिप्रेत हैं, जिसे सिविल न्यायालय अनुतोष देने के लिए आधार प्रदान करने वाला मानता हो चाहे ऐसा ऋण या फायदप्रद हिट वर्तमान, प्रोद्भवमान, सशर्त या समाश्रित हो:
किसी तथ्य की "किसी व्यक्ति को सूचना है" यह तब कहा जाता है, जब वह वास्तव में उस तथ्य को जनता है, अथवा यदि ऐसी जांच या तलाश, जो उसे करनी चाहिए थी, करने से जानबूझकर प्रविरत ना रहता या घोर उपेक्षा न करता, तो वह उस तथ्य को जान लेता।
स्पष्टीकरण १- जहां की स्थावर सम्पत्ति से सम्बंधित कोई संव्यवहार रजिस्ट्रीकृत लिखत द्वारा किया जाना विधि द्वारा अपेक्षित है, और वह रजिस्ट्रीकृत लिखत द्वारा किया गया हैं वहाँ यह जाएगा कि ऐसे व्यक्ति को, जो ऐसी सम्पत्ति को या ऐसी सम्पत्ति के किसी भाग या ऐसी सम्पत्ति में किसी अंश या हित को अर्जित करता है, ऐसी लिखत की सूचना उस तारीख से है, जिस तारीख को रजिस्ट्रीकरण हुआ है, या जहन की एक ही उपजिले में सब सम्पत्ति स्थित नहीं है या जहां की रजिस्ट्रीकृत लिखत भारतीय रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, १९०८(१९०८ का १६) की धारा ३० की उपधारा (२) के अधीन रजिस्ट्रीकृत की गई है, वहां उस पूर्वतम तारीख से है, जिसको ऐसे रजिस्ट्रीकृत लिखत का कोई ज्ञापन उस उपरजिस्ट्रार के पास फ़ाइल किया गया है जिसके उपजिले में उस सम्पत्ति का, जो अर्जित की जा रही है या उस सम्पत्ति का, जिसमे अंश या हित अर्जित किया जा रहा है, कोई भाग स्थित है:
● परन्तु यह जब तब की -
(१) उस लिखत का रजिस्ट्रीकरण और उसके रजिस्ट्रीकरण की पूर्ति भरतीय रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, १९०८(१९०८ का १६) द्वारा और तदधिन बनाये गये नियमो द्वारा विहित रीति से की जा चुकी हो;
(२) लिखत या ज्ञापन को उन पुस्तकों में, यतस्थिति, सम्यक रूप से प्रविष्ट या फ़ाइल कर दिया गया हो जो उस अधिनियम की धारा ५१ के अधीन रखी जाती है; तथा
(३) उस संव्यवहार के बारे में, जिससे वह लिखत सम्बंधित है, विशिष्टियां उन अनुक्रमणिकाओं में ठीक-ठीक प्रविष्ट कर दी गई हों, जो उस अधिनियम की धारा ५५ के अधीन रखी जाती है।
स्पष्टीकरण २- जो व्यक्ति किसी स्थावर सम्पत्ति को या किसी ऐसी सम्पत्ति में, के किसी अंश या हित को को अर्जित क्रय है, यह समझ की उसे उस सम्पत्ति में उस व्यक्ति के हक़ की, यदि कोई हो, सूचना है, जिसका तत्समय उस पर वास्तविक कब्जा है।
स्पष्टीकरण ३- यदि किसी व्यक्ति के अभिकर्ता को किसी तथ्य की उस कारोबार के अनुक्रम में, जिसके लिए वह तथ्य तात्विक है, उस व्यक्ति की ओर से कार्य करते हुए सूचना मिल जाती है तो यह समझ जाएगा कि उस तथ्य की सूचना उस व्यक्ति को थी:
● परन्तु यदि अभिकर्ता कपटपूर्वक उस तथ्य को छिपा लेता है तो जहां तक कि उस व्यक्ति का सम्बंध है, जो उस कपट में पक्षकार था या अन्यथा उसका संज्ञान रखता था, उसकी सूचना मालिक पर आरोपित न कि जाएगी।
४. संविदाओं से संबंधित अधिनियामितियों का संविदा अधिनियम का भाग और रजिस्ट्रिकरण अधिनियम का अनुपूरक समझा जाना-  इस अधिनियम के वे अध्याय और धाराएं, जो संविदाओं से संबंधित है, भारतीय संविदा अधिनियम, १८७२ (१८७२ का ९) का भाग मानी जाएंगी।

तथा धारा ५४, पैरा २ और ३  और धाराएं ५९, १०७ और १२३  भारतीय रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, १९०८(१९०८ का १६) के अनुपूरक के रूप में पढ़ी जाएंगी। 

Popular Posts